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बाल चिकित्सा अनुसंधान के वैश्वीकरण की परिघटना-जिसे कीमतें घटाने और दवाओं के विकास में समय कम करने तथा वैश्विक स्तर पर चिकित्सा अनुसंधान को नूतनता प्रदान करने के नाम पर काफी जोर-शोर से बढ़ावा दिया जा रहा है, किस तरह गरीब एवं तीसरी दुनिया के देशों के बच्चों को नए गिनीपिग (परीक्षण चूहों) में तबदील कर रही है, इसके बारे में पिछले दिनों ड्यूक क्लीनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन में रोशनी डाली गई है।
अध्ययन में यह बात भी उजागर हुई है कि अमेरिकी दवा कंपनियां अपने यहां के कांग्रेस के प्रावधानों का इस्तेमाल कर-जिसके तहत दवा कंपनियों को बच्चों पर दवाओं का असर जानने के लिए पेटेंट में छह महीने का विस्तार दिया जाता है-हर साल लगभग 14 अरब डॉलर का अतिरिक्त मुनाफा बटोर रही हैं।
यह अध्ययन जहां बच्चों के परीक्षण चूहे बनने की नियति को उजागर करता है, वहीं हम देख सकते हैं कि चिकित्सा अनुसंधान का भूमंडलीकरण तीसरी दुनिया की आम जनता पर भी कहर बनकर बरस रहा है। अपने यहां बहुत कम लोग इस हकीकत से वाकिफ होंगे कि हर महीने लगभग 42 लोग इसका शिकार हो रहे हैं। पिछले दिनों लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वास्थ्य मंत्री दिनेश चंद्र द्विवेदी ने यह विस्फोटक तथ्य उजागर किया कि यहां ड्रग ट्रायल के दौरान विगत तीन वर्षों में 1,599 लोगों की मृत्यु हुई है।
आम हिंदुस्तानी का बड़ी-बड़ी कंपनियों की दवाओं के लिए गिनीपिग बनने का सिलसिला कोई नया नहीं है। वर्ष 1997 में देश के प्रमुख कैंसर संस्थान ‘इंस्टीट्यूट फॉर साइटॉलॉजी ऐंड प्रिवेंटिव एनकॉलोजी’ के तहत चला एक अध्ययन विवाद का विषय बना, जब पता चला कि सर्वाइकल डिसप्लेसिया से पीड़ित 1,100 स्त्रियों का इलाज केवल इसलिए नहीं किया गया था, ताकि बीमारी किस तरह बढ़ती है, उसका अध्ययन किया जाए। जब उन स्त्रियों में सर्वाइकल कैंसर की आशंका महसूस की गई, तब भी उन पर परीक्षण जारी रहा! ज्यादा विचलित करने वाली बात यह थी कि यह समूचा अध्ययन देश के एक अग्रणी चिकित्सकीय खोज संस्थान के बैनर तले संचालित हो रहा था, जिस पर चिकित्सकीय शोध की नैतिक मार्गदर्शिका बनाने की प्रमुख जिम्मेदारी थी।
यह आउटसोर्सिंग का जमाना है। जाहिर है, बड़ी-बड़ी बहुद्देश्यीय दवा कंपनियों द्वारा अपनी नई दवाओं के परीक्षण का बोझ तीसरी दुनिया की जनता पर छोड़ने के मामले में कुछ भी अनोखा नहीं है। मुंबई में पिछले साल आयोजित प्रथम इंडिया फार्मा समिट में यह बात भी स्पष्ट हुई थी कि स्वास्थ्य प्रणाली की खामियों के चलते ऐसे आयोजनों में वॉलंटियर बने लोगों की सुरक्षा का मसला अकसर उपेक्षित ही रह जाता है। अकारण नहीं है कि ऐसे लोगों की सहज उपलब्धता का कारण गैरजानकारी या उनकी गरीबी है। इस कारण वे ऐसी नई दवाओं का प्रयोग करने के लिए तैयार रहते हैं। तीसरी दुनिया के देशों की लचर स्वास्थ्य प्रणाली और भ्रष्टाचार के चलते आउटसोर्स किए गए चिकित्सकीय परीक्षणों का बाजार आज 12,000 करोड़ रुपये से अधिक हो चुका है।
मुंबई में आयोजित उस सम्मेलन में फिक्की की तरफ से एक रिपोर्ट भी पेश की गई, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए उपयोगी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय हित का मतलब है ऐसी दवाइयां, जो भारतीय आबादी के हिसाब से अधिक प्रासंगिक हो तथा अन्य मुल्कों में इस किस्म की वरीयता न हो। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि परीक्षणों के लिए भारत की परिस्थिति के मुताबिक ऐसे पैमाने भी तय किए जा सकते हैं कि कौन-सी जांच यहां संभव नहीं होगी। इस फेहरिस्त में अन्य मुल्कों में प्रतिबंधित दवाएं भी शामिल की जा सकती हैं।
गरीब मरीजों पर दवा परीक्षणों का काम कितना खुलकर होता है, इसका खुलासा भी पिछले दिनों इंदौर के एक चर्चित अस्पताल में हुआ। मरीजों और शहर के जागरूक वर्ग द्वारा जब इस संबंध में आवाज बुलंद की गई, तब ड्रग ट्रायल के आरोपों से घिरे डॉक्टरों ने शहर के एक बड़े होटल में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया, जिसका मकसद कथित तौर पर लोगों को बताना था कि ड्रग ट्रायल आखिर होता क्या है? पर गरीब मरीजों पर ही क्यों ट्रायल किए जाते हैं, इस सवाल पर उन्होंने चुप्पी साध ली।

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